पन्द्रहवां अध्याय
श्री भगवान बोले- संसार
अश्वत्थ (पीपल) के समान है जिसका पुराण पुरुष रूप जड़ ऊपर है और चराचर जगत रूप शाखा
नीचे है, वेद इसके पत्ते हैं, जो जानता है वेद का ज्ञाता है, इसकी शाखायें ऊपर
फैंली हुई हैं सत्व, रज और तमोगुण इसकी रस वाहिनी नसें हैं| इनसे इसका पालन होता
है शब्द रूप आदि इसकी जड़ें नीचे मनुष्य लोक में और भी नीचे तक चली गई हैं, पर
अश्वत्थ का यह रूप इसका आदि अन्त और आकार संसारी प्राणी के ध्यान में नहीं आता पर
इसकी जड़ें गहरी हैं, ऐसे इस पीपल को वैराग्य रूपी दृढ शस्त्र से काटकर वह
स्थान ढूँढना चाहिए जहां से फिर लौटना
नहीं पड़ता और साथ ही यह विचारना चाहिये कि जिसमें वह पुरातन प्रवृति उत्पन्न हुई
हैं उसी मैं आदि पुरुष की शरण हूँ |
Shreemad Bhagwat Geeta Adhyay 15 |
अहंकार और मोह रहित संग दोष को जीतने वाले
आत्म ज्ञान से निरत सब कामनाओं से दूर सुख- दुःख नामक द्वन्द पदार्थों से मुक्त
ऐसे ज्ञानी पुरुष शाश्वत पद को पाते हैं, जिसे सूर्य चन्द्र या अग्नि प्रकाशित
नहीं करते वही मेरा परमधाम है, वहाँ जाकर लौटना नहीं होता| मेरा सनातन अंश इस जीव
लोक में जीव का रूप धरकर प्रकृति में स्थिर पाँचों इन्द्रियों और छठे मन को उससे
छुड़ाता है, जैसे वायु पुष्पादि की गंध को दूसरे स्थान में ले जाता है, इसी प्रकार
यह देही स्वयं शरीर धारण करने के बाद जब उसका परित्याग करता है, तब इन्द्रियों और
मन को साथ ले जाता है, कान, आँख, चर्म, जीभ, नाक और मन का आश्रय लेकर वह जीव
विषयों का ही भोग करता है,
श्रीमद भागवत गीता अध्याय १५ |
एक देह से दूसरी देह में जाते समय अथवा एक ही देह में
रहते समय अथवा इन्द्रियों से युक्त हो विषयों को उपभोग करते हुए इसको मूर्ख देख
नहीं सकते, किन्तु जिनके ज्ञानरूप नेत्र हैं वे देखते हैं, यत्न करने से योगीजन
देख सकते हैं, परन्तु अज्ञानी यत्न करने पर भी इसे नहीं देख पाते, जो तेज सूर्य,
चन्द्रमा और अग्नि में वर्तमान है और जगत को प्रकाशित करता है उसे मेरा ही तेज
मानों मैं ही पृथ्वी में प्रवेश कर अपने तेज से समस्त भूतों को धारण करता हूँ और
इनमें भरा हुआ चंद्रमा बन कर मैं ही सब औषधियों को पोषण करता हूँ, मैं जठराग्नि
होकर प्राणियों के देह में प्रविष्ट हूँ और प्राणवायु अपानवायु से संयुक्त होकर
चारों प्रकार ( भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह) से भोजन किए प्राणियों के अन्न को
पचाता हूँ, सम्पूर्ण भूतों के ह्रदय कमल में निवास करता हूँ| मुझसे ही स्मृति
ज्ञान- और उनका नाश होता है, सब वेदों में जानने योग्य मैं ही हूँ,
पन्द्रहवां अध्याय shreemad bhagwat gita |
वेदांत का
कर्ता और वेदों का ज्ञाता मैं ही हूँ, इस संसार में क्षर और अक्षर ये दो पुरुष है,
जितने नाशवान प्राणी हैं वे क्षर कहलाते हैं और उसमें कूटस्थ अर्थात् शैली शिखर के
भांति स्थिर चैतन्य को अक्षर कहते हैं, किन्तु उत्तम पुरुष परमात्मा विकार रहित
सर्व नियंता बन्धनमुक्त नित्य रूप तीनों लोकों में प्रविष्ट धारण पोषण करता है, वह
इन दोनों से अलग है, मैं क्षर अक्षर से उत्कृष्ट हूँ इसी कारण से लोक और वेद में
पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हूँ, हे भारत! जो ज्ञानी जन इस प्रकार से मुझको
पुरुषोत्तम जानता है वह सब कुछ जानता है और सर्वतोभावेन मेरा ही स्मरण करता है, हे
भारत! शास्त्र के गुझ भेद को जो मैंने कहा है जानकर बुद्धिमान पुरुष कृत-कृत्य
होता है|
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