Shreemad Bhagwat Geeta Adhyay 12 | श्रीमद भागवत गीता अध्याय १२

बारहवाँ अध्याय


 अर्जुन ने पूछा - इस प्रकार जो भक्त सैदेव योग युक्त होकर आपकी उपासना करते हैं और व्यक्ति परंब्रह्म को भजते हैं, इन दोनों में कौन सा श्रेष्ठ योगी है| श्री भगवान् बोले – जो  मेरे विषय में मन लगाकर श्रद्धा पूर्वक मुझको भजते हैं वे उत्तम योगी हैं, परन्तु जो इन्द्रियों को संयमकर के सर्वज्ञ सम दृष्टि रखने वाले सब प्राणियों के हित में लगे हुए अकथनीय, अव्यक्त, सर्वव्यापी अचिंततीय निर्विकार अचल ध्रुव अक्षर का भजन करते हैं, वे भी मुझे प्राप्त होते है, अव्यक्त में जिनका चित्त आसक्त है, वह कष्ट अधिक पाते हैं क्योंकि अव्यक्तगती को प्राणी कष्ट से पाते हैं,
श्रीमद भागवत गीता अध्याय १२
श्रीमद भागवत गीता अध्याय १२
  हे पार्थ! जो प्राणी अपने सब कर्मों को मेरे अपर्ण करके मेरी शरण आकर अनन्य भक्ति से मेरा ध्यान करते और पूजते हैं, उन शरण में आए हुए भक्तों का मैं थोडे ही समय में मृत्यु युक्त संसार से उद्धार कर देता हूँ, मुझ ही में मन रखो मुझमें ही बुद्धि रखो तब मुझी में निवास करोगे इसमें कुछ संदेह नहीं, हे धनंजय! यदि इस प्रकार तुम मुझमें अपने चित्त को लगाने में समर्थ न हो तो अभ्यास योग द्वारा हमारे पाने के लिए बारम्बार यत्न करो, यदि अभ्यास भी न कर सको तो मेरे उदेश्य से व्रतादि ही करो यदि मेरे लिए तुम कर्म करोगे तो तुम्हें मुक्ति प्राप्त होगी और यदि ऐसा भी न कर सको तो मन को रोक अनन्य भाव से मेरी शरण में आओ और फल की आशा छोड़कर कर्म करो, क्योंकि अभ्यास से ज्ञान उत्तम है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से कर्मों के फल का त्यागना श्रेष्ठ है, त्याग से शान्ति प्राप्त होती है, जो किसी से द्वेष नहीं करता, सबका मित्र है, द्याधारी है ममता और अहंकार जिस में नहीं हैं, सुख दुःख को जो समान जानता है क्षमावान है संतोषी है स्थिर चित्त इन्द्रियों को वश में रखता है दृढ़ निश्च्यवान है मुझमें अपना मन और बुद्धि लगाये हुए हैं ऐसा मेरा भक्त मुझको प्रिय जिसे न लोगों का भय है जो न लोगों से डरता है जो हर्ष, इर्ष्या, दुष्टों से भय और विषाद से रहित है वह मेरा प्रिय है जो कुछ मिले उसी में सन्तुष्ट पवित्र पक्ष निष्पाप दुःख रहित फल ही आशा त्याग कर कर्म करने वाला ऐसा जो मेरा भक्त है वह मुझे प्रिय है 
Shreemad Bhagwat Geeta Adhyay 12
Shreemad Bhagwat Geeta Adhyay 12

shree krishna ji arjuna ko gita ka updesh or gyan
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जो लाभ से प्रसन्न न हो किसी से द्वेष न करे इष्ट पदार्थ के नष्ट होने से दुखी न हो किसी वस्तु की इच्छा न करे शुभ तथा अशुभ दोनों का त्यागी भक्त मेरा परम प्रिय है| जिसको शत्रु और मित्र मान और अपमान सर्दी और गर्मी सुख और दुःख समान है ओर जो वासना से रहित है जो निंदा और स्तुति को समान जनता है और मुझे मान कर इस अमृत के समान कल्याण कारक धर्म का आचरण मेरे उपदेशानुसार करते हैं वे मुझको अत्यन्त प्रिय हैं|

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