चने की खेती कैसे करें , इसकी पैदावार बढाने के
तरीके और बिमारियों से बचाव
प्रमुख दलहन
चना एक बहुत ही महत्वपूर्ण दलहन फसल है. इसकी
खेती रबी ऋतु में की जाती है. भारत में चनें की खेती बहुत बड़े पैमाने पर की जाती
है. पूरे विश्व में चनें की जितनी पैदावार की जाती है उसमें से 70 प्रतिशत पैदावार
अकेले भारत देश से की जाती है. इसमें पायें जाने वालो तत्वों ने इसका महत्व और भी
बढ़ा दिया है. इसमें पायें जाने वालें तत्वों में प्रोटीन (21 %), कार्बोहाइड्रेट (61.5 %), वसा 4.5% मात्रा में होते हैं. चने की
उपयोग खाने के लिए किया जाता है. इससे दाल बनायीं जाती है और इसके दानों को पीस कर
बेसन तैयार किया जा सकता है. इसके अलावा चने का इस्तेमाल मिठाई और अनेक स्वादिष्ट
व्यंजन बनाने के लिए भी किया जाता है. चने का भूसा पशुओं के लिए चारे के रूप में
भी काम में लाया जा सकता है. चना एक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है.
इसका प्रयोग लगातार करने से मनुष्य का खून साफ़ हो जाता है और अन्य बिमारियों का
इलाज भी इसके प्रयोग से किया जा सकता है. यह भूमि की उपजाऊ क्षमता बढ़ाता है.
उन्नत किस्मों का प्रयोग : -
चने की फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए ऐसी किस्मों
का प्रयोग करें जो उत्पादन को बढ़ा दें. आज के समय में चने की कई किस्में विकसित कर
ली गयी है जिनका प्रयोग करके उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है. इनमें कुछ किस्मों के
नाम इस प्रकार है – पंत चना -3, पंत चना -4, पंत काबुली चना -2. इन किस्मों का
प्रयोग करके पैदा की जाने वाली फसल रोगमुक्त रहती है.
चने की बुवाई के लिए भूमि व् उसकी तैयारी :
चने की खेती के लिए मिटटी अच्छी किस्म की होनी
चाहिए इसके लिए आप हलकी दोमट या दोमट मिटटी को प्रयोग में ला सकते हैं. भूमि से
पानी की निकासी का प्रबंध अच्छी तरह से कर लें. ऐसी भूमि को चने की खेती के लिए
उपयोग में ना लाये जो अधिक क्षारीय हो. भूमि की पहली बार जुताई करने के लिए मिटटी
को पलटने वाली हैरो का प्रयोग करना चाहिए. इसके पश्चात एक बार और जुताई कर ले.
इसके बाद मेज या पाटा से भूमि को समतल कर दें. तीसरी और अंतिम जुताई करते समय
हेप्टाक्लोर (4%), क्यूनालफास (1.5%) या मिथाइल पैराथियोन (2%) या एंडोसल्फान
(1.5%) की 25 चूर्ण ग्राम की मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मिटटी में डाल
दे. ऐसा करने से फसल पर दीमक व् कटवर्म का प्रभाव नहीं पड़ेगा और फसल रोगमुक्त
रहेगी.
बीज
उपचार :
चने की फसल में बहुत से कीट नुकसान करते है और
बीमारियाँ फैला देते है. ये कीट फसल को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.
इसलिए इनकें बुरे प्रभावों से बचने के लिए बीज का उपचार करके ही बोना चाहिए. बीज
को कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए सबसे पहले फफूंदीनाशी उसके बाद कीटनाशी और इसके
बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर ले. कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम
की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा एक
किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए काफ़ी है. इसके द्वारा उपचारित बीज जड़ गलन व्
उखटा नामक रोग की रोकथाम की जा सकती है. भूमि दे दीमक लगने की स्थिति न हो इसके
लिए क्लोरोपाइरीफोस
20 ईसी या एन्डोसल्फॅान 35 ईसी की 8 मिलीलीटर मात्रा से एक किलोग्राम बीज का उपचार
कर ले और इसके बाद ही बुवाई करें. बीज को उपचारित करने का तरीका भी सही होना चाहिए
अगर बीज सही तरह से उपचारित नहीं होगा तो बीज पर कीटों का प्रभाव हो जायेगा और फसल
का उत्पादन अपेक्षा के अनुसार नहीं होगा. बीज का उपचार करने की विधि में सबसे पहले
एक लीटर पानी को गर्म कर ले और उसमे गुड़ मिला दे. थोड़ी देर बाद जब यह घोल ठंडा हो
जाये तब इसमें राइजोबियम कल्चर और फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी तरह से मिला
लें. इस घोल से बीज का अच्छी तरह से उपचार कर लें. उपचार के बाद बीज को छाया में
सूखने के लिए रख दे और जल्दी ही उसकी बुवाई कर दें.
बोने का समय और बुवाई
जहाँ पर सिंचाई नहीं की गयी हो उस भूमि पर चने
की बुवाई करने के लिए अक्टूबर महीना उत्तम समय है. अक्टूबर की शुरुआत में ही बुवाई कर दें. इसके
अलावा जहाँ पर सिचाई की व्यवस्था अच्छी हो और पानी पर्याप्त मात्रा में मिल सकता
हो उन क्षेत्रों में 20 या 25 दिन बाद भी चने की बुवाई की जा सकती है. फसल का
उत्पादन ज्यादा मात्रा में करने के लिए बीज सा अधिक मात्रा में प्रयोग करना पड़ेगा.
ज्यादा बीज डालने से और साथ में दूरी का भी ध्यान रखें. अधिक मात्रा में बीज डालने
से पेड़ों की संख्या ज्यादा होगी और उनके उचित ग्रोथ के लिए पौधों की उचित दूरी होनी
जरुरी है. जिन क्षेत्रों में सिंचाई के उचित साधन नहीं है उनमे 80 किलोग्राम बीज
का प्रयोग करें और पर्याप्त सिंचाई वालें क्षेत्रों में 60 किलोग्राम बीज ही बिजाई
के लिए इस्तेमाल करना चाहिए. क्षेत्रों के अनुसार ही उनकी गहराई भी होनी जरुरी है.
बारानी फसल में 7 से 10 से.मी. तक गहराई में बिजाई करनी चाहिए और सिंचित क्षेत्र
में गहराई 5 से 7 से.मी. रखें. फसल की बुवाई की दूरी पंक्ति से 45 से 50 से.मी.
रखनी चाहिए.
खाद और उर्वरक :
चने की फसल के लिए नाइट्रोजन की मात्रा
का बहुत ही कम इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि यह इसके दलहनी फसल होने के कारण होता
है. चनें का पौधे की जड़ों में जो ग्रंथियां होती हैं उनमे जो जीवाणु होते है वे
नाइट्रोजन को जड़ों में ही स्थिर कर देते है इसी वजह से चने के पौधे की आवश्यक
नाइट्रोजन की मात्रा की पूर्ति हो जाती है. जब पौधा शुरुआती अवस्था में होता है तब
ग्रंथियां पूरी तरह विकसित नहीं होती और उनकी नाइट्रोजन की आवश्यकता भूमि से ही
पूरी है. इसकी कमी को पूरा करने के लिए 20 किलिग्राम नाइट्रोजन का प्रयोग एक
हेक्टेयर में होता है. प्रति हेक्टेयर 40 किलोग्राम फास्फोरस भी डाल दें. इसके
अलावा गोबर का इस्तेमाल करके भी इसकी पूर्ति की जा सकती है. गोबर और यूरिया द्वारा
कम्पोस्ट खाद तैयार होती है जिससे नाइट्रोजन की कमी पूरी की जा सकती है. इसके
अलावा और भी उपाय है जिनकें द्वारा लाभ लिया जा सकता है. जब आप भूमि तैयार कर रहे
होतें हैं उस दौरान मिटटी में कम्पोस्ट खाद मिला दे या फिर एक हेक्टेयर के लिए
लगभग 2.50 टन गोबर को मिटटी में अच्छी तरह से मिला दें. इसके बाद बुवाई करते समय
यूरिया को मात्रा लगभग 125 किलिग्राम और सिंगल सुपर फास्फेट 44 किलोग्राम या डीएपी
में 5 किलो ग्राम यूरिया मिला दें. अब इसको प्रति हेक्टेयर में पंक्तियों के
अनुसार डाल दे इससे आवश्यक सामग्री की पूर्ति हो जाती है.
सिंचाई की व्यवस्था कैसे करे : -
चने की ज्यादातर खेती उन क्षेत्रों में
की जाती है जहाँ सिंचाई के लिए ज्यादा पानी ना हो. पर्याप्त सिंचाई क्षेत्रों में
नमी की कमी को पूरा करने के लिए सिंचाई की जाती है. ज्यादा सिंचाई ना करके बस एक
या दो बार ही सिंचाई की जाती है. पहली सिंचाई के लिए 40 या 50 दिन इंतजार करना
चाहिए तभी सिंचाई का सही समय होता है उसके बाद दूसरी सिंचाई जब की जाती है जब पौधे
पर फलियाँ आने लगती हैं. सिंचित क्षेत्रों भूमि की सिंचाई करके ही फसल की बुवाई
करनी चाहिए. बुवाई के बाद पहली सिंचाई 40 दिन बाद और 70 से 80 दिन के बाद दूसरी
सिंचाई कर देनी चाहिए. दूसरी सिंचाई करने के 35 से 40 दिन बाद तीसरी सिंचाई की
तैयारी करनी चाहिए. यदि सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं हो तो ऐसे में 60-70 दिन के बाद
एक सिंचाई से भी काम चल सकता है खेतों में हर समय पानी नहीं भरा रहना चाहिए
क्योंकि ज्यादा पानी से पौधों को नुकसान होता है.
निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण :
खरपतवार से फसलों में बहुत नुकसान होता
है और इनके प्रभाव चने की फसल पर भी पड़ते है. चने की फसल में बहुत से खरपतवार पाएं
जातें है जिनमें मुख्य रूप से बथुआ, खरतुआ, मोरवा, प्याजी, मोथा और दूब शामिल हैं.
खरपतवारों का सबसे हनिकारक प्रभाव यह होता है कि वे चने के पौधे से साथ उगते है और
पौधे की वृद्धि के लिए जो आवश्यक तत्व होते है उन्हें ग्रहण कर लेते है जिस कारण
पौधे की वृद्धि रुक जाती है. खरपतवार पौधे को मिलाने वाले कुछ आवश्यक तत्व जैसे
पोषक तत्वों, नमी, स्थान, प्रकाश लो स्वयं ले लेता है. खरपतवारों के अलावा
हानिकारक कीट और अनेक बिमारियां भी चने की फसल को बहुत नुक्सान देतीं हैं. इनके
प्रभाव से बचने के लिए समय पर ही इनको नियंत्रित करने के उपाय कर लेने चाहियें.
इससे बचने के लिए फसल की गुड़ाई करनी चाहिए. 30- से 35 दिनों के अन्तराल के बाद एक
बार गुड़ाई कर ले और इसके 20 से 25 दिनों के अन्तराल पर ही दूसरी गुड़ाई कर दे. यदि
गुड़ाई करने के लिए समय पर काम करने वालें नहीं मिलते तो बुवाई करने के बाद ही पैन्ड़ीमैथालीन
की 2.50 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल ले. इसके बाद इस घोल को समान मात्रा
में मशीनों द्वारा खेत में छिड़कवा दें. ऐसा करने के बाद बुवाई कर दे फिर 30 से 35
दिनों के अन्तराल के बाद ही एक बार गुड़ाई जरुर कर दें. ऐसा करके आप चने की फसल को
हानिकारक खरपतवारों और दुसरे नुकसानों से बचा सकते हैं.
बीमारियाँ :
चने की फसल में बहुत सारी बीमारियाँ लग
जाती है जो कि फसल के लिए बहुत घातक है. ये बीमारियाँ फसल को बिलकुल बर्बाद भी कर
सकती है इनमे कुछ इस प्रकार है : फली छेदक, झुलसा रोग (ब्लाइट), उखटा रोग (विल्ट),
किटट (रस्ट)
पाले से फसल का बचाव :
पाले का प्रभाव चने की फसल को बहुत
ज्यादा प्रभावित करता है और इससे फसल को नुकसान भी बहुत होता है. इसका प्रभाव
दिसंबर और जनवरी में ज्यादा होता है. पाले से बचाव करने के लिए एक लीटर गंधक को एक
हजार लीटर पानी में घोल ले. अब इसका छिड्काव पौधों पर कर दें. इसके अलावा खेत के
चारों ओर धुआं करके भी पाले से होने वाली परेशानी में राहत ली जा सकती है.
फसल चक्र :
उचित फसल चक्र को अपनाकर खेती करने से
भूमि की उर्वरक क्षमता बढ़ाई जा सकती है. जिन क्षेत्रों में सिंचाई के उचित साधन
नहीं है उनमे पड़त चना एक साल के लिए, पड़त चना पड़त सरसों दो साल के लिए, पड़त चना
पड़त सरसों पड़त चना तीन साल के लिए, इस तरह का फसल चक्र अपनाकर लाभ उठाया जा सकता
है.
फसल की कटाई व् गहराई :
कटाई करने से पहले जाँच ले कि फसल पूरी
तरह पकी हुई है या नहीं. पूरी तरह से पकने के बाद ही कटाई करना उचित है. पत्तियों
और फलियों का रंग पीला और भूरा दिखाई देने लगे तथा पौधों से पत्तियों झड़ने लगे व्
चने के दाने पूरी तरह सख्त हो जाएँ उसके बाद ही कटाई शुरू करनी चाहिए. कटाई करने
के बाद कुछ दिन तक सूखने दे उसके बाद थ्रैशर का इस्तेमाल करके चने को अलग कर ले और
भूसे को अलग कर दें. चने के दानों को किसी भी सुरक्षित जगह पर रख दें.
उपज व् आर्थिक लाभ :
बढ़िया किस्म के बीज का इस्तेमाल करके
उगाई गयी फसल से प्रति हेक्टेयर 20 से 22 क्विंटल चना पैदा किया जा सकता है. चने
की फसल को उगाने के लिए प्रति हेक्टेयर पर 15 से 20 हजार रुपयें का खर्च होतें है.
अगर इसका बाज़ार में सही भाव लगभग 3000 रुपयें प्रति क्विंटल मिल जाएँ तो 25 से 30
हजार रुपयों का फायदा हो सकता है.
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