नवम अध्याय
श्री कृष्ण बोले – हे अर्जुन! तुम में ईर्ष्या नहीं है इसलिए यह अतिगुप्त
शास्त्रीय ज्ञान और अनुभव तुमसे कहता हूँ, इसे जानकार तुम्हारा अशुभ न होगा, यह
ज्ञान सब विघाओं में श्रेष्ठ तथा और सब गोपनीयों
में गुप्त एवं परम पवित्र, उत्तम प्रत्यक्ष फल वाला और धर्म युक्त है, साधन
करने में बड़ा सुगम और नष्ट नहीं होता, हे परन्तप ! इस धर्म पर जो श्रद्दा नहीं
रखते वे मुझे नहीं पाते और इस मृत्यु युक्त संसार में बार – बार लौटते हैं, मैं अव्यक्त
हूँ और मैंने ही यह सब जगत प्रकट किए है, सब प्राणी मुझमें स्थित हैं किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ, मुझमें सब भूत भी
नहीं हैं, मेरा यह ईश्वरीय कर्म देखो, मेरी ही आत्मा सब भूतों का पालन करती हुई भी
नियत नहीं है, जिस प्रकार सर्वत्र बहने वाली महान वायु समस्त आकाश में व्याप्त है
उसी प्रकार सर्वत्र बहुत मुझमें हैं ऐसा समझो,
हे कौन्तेय! सभी जीव कल्प के अन्त
में मेरी प्रकृति में आ मिलते हैं और कल्प के प्रारम्भ में उनको फिर उत्पन्न करता
हूँ, अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर उसके गुण व स्वभाव वाले समस्त भूतवर्ग को मैं बार
– बार उत्पन्न करता हूँ, हे धनंजय! मेरे
ये कर्म मुझे नहीं बाँधते क्योंकि मैं उदासीन की तरह इन में आसक्त नहीं हूँ और
स्थिर हूँ मैं अध्यक्ष होकर प्रकृति द्वारा चराचर जगत को उत्पन्न करता हूँ हे
कौन्तेय! इसी कारण यह जगत बनता बिगड़ता रहता है, मुर्ख लोग मेरे स्वरूप को नहीं
जानते कि मैं समस्त चराचर का स्वामी हूँ, वे मुझको मनुष्य जानकार मेरी अवहेलना
करते हैं, उनकी आशा व्यर्थ, कर्म, निष्फल, ज्ञान निरर्थक चित्त भ्रष्ट है, वे उस
आसुरी शक्ति के वश में हैं जो मोह को उत्पन्न करती है, हे पार्थ! विवेकी जन जो
दैवी प्रकृति में स्थित हैं वे मुझे संसार का आदि अविनाशी जानकर अनन्य मन से भजते
हैं, दृढब्रती सदा मेरा कीर्तन करते और भक्ति से उपासना करते हैं, कोई एकत्व से
कोई पृथकत्व से और कोई मुझे अनेक रूप वाला विश्व रूप मानकर उपासना करते हैं
Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 9 |
हे श्रोते
यज्ञ मैं हूँ, स्मार्तयज्ञ मैं हूँ और पितृयज्ञ मैं ही हूँ, इस जगत का पिता, माता
धारणकर्ता पितामह मैं ही हूँ, जान्ने योग्य पदार्थ, ओंकार, ऋग्वेद सामवेद और
यजुर्वेद मैं हूँ, गति पालन कर्ता, प्रभु, साक्षी निवास स्थान, रक्षक, मित्र ,
उत्पन्न करने वाला, संहार कारक आधार, प्रलय स्थान और अविनाशी बीज मैं ही हूँ, मैं
सूर्य रूप से तपता हूँ मैं वर्षा रोकता हूँ मैं ही वर्षा करता हूँ तथा हे अर्जुन!
मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ तथा सत् और असत् भी हूँ, तीनों वेदों के ज्ञाता सोम
पीने वाले पाप रहित यज्ञ द्वारा मेरी पूजा करके स्वर्ग चाहते हैं और इन्द्र के पुण्य
लोक में पहुंच कर स्वर्ग में देवताओं के योग्य दिव्य सुख भोगते हैं, वे उस विशाल
स्वर्गलोक में सुख भोगकर पुण्य के क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में आते हैं इस
प्रकार तीनों वेदों के यज्ञादि धर्मों का पालन करने वाले भोग की इच्छा रखने वालों
का आवागमन होता रहता है,
भगवत ज्ञान |
जो अनन्य भाव से चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते हैं उन
नित्ययोगियों के योगक्षेम अर्थात् स्थान योजनाच्छादन कर इनकी मैं रक्षा करता हूँ
हे कौन्तेय! जो दुसरे देवताओं के भक्त हैं और श्रद्दा से उन्हें पूजते हैं वे भी
मेरा ही पूजन करते हैं परन्तु यह पूजन विधि पूर्वक नहीं है, सब यज्ञों का भोक्ता
और स्वामी मैं ही हूँ, जो मेरे इस तत्व रूप को नहीं जानते हैं वे आवागमन से नहीं
छूटते हैं, देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं, पितरो के पूजन
पितृलोक को पाते हैं, यज्ञादि के पुजारी यमलोक को जाते हैं और मेरा पूजन करने वाले
मुझे प्राप्त होते हैं | भक्ति से पत्र, पुष्प, फल या जल जो मुझको अपर्ण करता है,
उस शुद्ध अन्तः करण वाले व्यक्ति के भक्ति से दिए हुए पदार्थ को मैं बड़ी प्रसन्नता
से ग्रहण करता हूँ,
कर्म बंधन by shree Krishna |
हे कौन्तेय! जो तुम करते हो, खाते हो वह सब मुझ को अपर्ण करो,
ऐसा करने से कर्म बन्धन रूप शुभ अशुभ फलों से मुक्त हो जाओगे और संन्यास योग में
युक्त होकर मुक्ति या मुझको अवश्य पाओगे| मैं समस्त भूतों के लिये समान हूँ, न कोई
मुझे अप्रिय है और न प्रिय, जो मुझको भक्ति से भजता है वह मुझमें है और मैं उसमे
हूँ यदि कोई दुराचारी भी हो और अनन्य भाव से मेरा भजन करे, उसको मैं साधु ही मानता
हूँ क्योंकि उसने उत्तम मार्ग ग्रहण किया है, वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और
चिरस्थायी शान्ति को पाता है, हे कौन्तेय! यह निश्चय करके जानों कि मेरा भक्त कभी
नाश को प्राप्त नहीं होता, हे पार्थ! इस नाशवान् और दुःख भरे संसार में जन्म पाकर
तुम मेरा ही भजन करो, मुझमें मन लगा, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा और मुझे नमस्कार कर
, मुझमें लौ लगाये रहकर मुझमें लय हो जाओगे|
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