पहला अध्याय
जब कौरव - पांडव महाभारत के युद्ध को चले तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा - मैं भी युद्ध को देखने चलूंगा तब श्रीव्यास जी ने कहा - हे राजन , नेत्र के बिना क्या देखोगे । राजा धृतराष्ट्र ने कहा - देखूंगा नहीं तो श्रवण तो करूंगा , तब व्यासजी ने कहा - हे राजन् ! तेरा सारथी संजय जो कुछ महाभारत के युद्ध की लीला कुरुक्षेत्र में होगी सो यहां बैठे ही
आपको श्रवण करा देगा , व्यासजी के मुख से यह वचन सुनकर संजय ने विनती करी हे प्रभु ! यहाँ हस्तिनापुर में बैठे कुरुक्षेत्र की लीला कैसे जानूंगा तथा राजा को किस भांति कहूंगा तब व्यास जी ने संजय को यह वचन कहा संजय ! मेरी कृपा से तुझे यहाँ ही सब दिखाई देगा । व्यासजी के इतना कहते ही संजय को दिव्या दृष्टि भई और बुद्धि भी दिव्य हो भई ।
Dhritarastra with Sanjay discribing mahabharata youdh |
अब आगे महाभारत का कौतुक कहते हैं सो सुनो , सात अक्षौहिणी सेना पाण्डवों की और ग्यारह अक्षौहिणी सेना कौरवों की , यह दोनों सेना कुरुक्षेत्र में जा एकत्र हुई । धृतराष्ट्र ने पूछा हे संजय ! धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ।संजय ने कहा पांडवों की सेना को व्यूहित देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के समीप जाकर कहने लगे - हे आचार्य ! देखिए आपके शिष्य बुद्धिमान द्रुपदपुत्र ने पांडवों की बड़ी सेना की कैसी व्यूह रचना की है । इस सेना में अर्जुन ,भीम जैसे बड़े - २ धनुर्धारी वीर विराट महारथी द्रुपद , धृष्टकेतु, चेकितान बलवान काशी राज , पुरुजित कुन्तीभोज नरों में श्रेष्ठ शैव्य , पराक्रमी युधामन्यु , बलवान उत्तमौजा , अभिमन्यु और द्रोपदी के पुत्र सब के सब महारथी हैं । हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! आपके स्मरणार्थ अब मैं अपनी सेना के प्रधान सेना पतियों के नाम बताता हूँ । आप , भीष्म , कर्ण , युद्ध विजय कृपाचार्य अश्वत्थामा , विकर्ण सोमदत्त का पुत्र भुरिश्रवा और बहुत से शूरवीर मेरे लिए प्राण तक देने के लिए तैयार हैं । ये लोग शस्त्र चलने में अति निपुण हैं ।हमारी सेना का जिसके भीष्म रक्षक हैं , अपरिमित बल है और उनकी सेना जिसके भीम रक्षक है , थोड़ा बल है । अब आप सब अपने- अपने मोर्चो पर सावधान रह कर सेनापति की रक्षा कीजिए । भीष्म पितामह ने दुर्योधन को प्रसन्न करते हुए और ऊँचे स्वर में गर्जते हुए शंख बजाया फिर वंहा चारों ओर शंख , नगाड़े ढोल , गोमुखादि बाजे बजने लगे , जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ जिसके अनन्तर श्री कृष्ण ने पांचजन्य और अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख को और भीषण कर्म करने वाले भीम ने पौंड्रक नामक बड़े शंख को बजाया । कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक और धनुर्नर काशिराज , शिखंडी , धृष्टघुम्न विराट , अपराजित सात्यकी राजा द्रुपदी के पाँच पुत्रों और महाबाहु अभिमन्यु इन सब वीरों ने अपने - अपने शंखो को बजाया । उन शंखों के भारी शब्द से आकाश और पृथ्वी गूँज उठे और धृतराष्ट्र के पुत्रों के ह्रदय कांप उठे ।
हे राजन् ! अर्जुन ने कौरवों को युद्ध के लिए प्रस्तुत देखकर धनुष उठाकर श्री कृष्ण से कहा कि हे अच्युत ! मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए । जिससे मैं युद्ध करने वालों को देख लूँ , कि इस रणभूमि में मुझे किन - किन के साथ युद्ध करना चाहिए । दुर्बुद्धि दुर्योधन की प्रीति करने वाले जो युद्ध के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं उनको देखूंगा । संजय ने कहा हे राजन् ! अर्जुन की बात सुनकर श्री कृष्ण ने भीष्म द्रोण आदि वीरों के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके कहा कि हे वीर युद्ध के लिए उघत इन कौरवों को देख लो । अर्जुन ने चाचा , बाबा , गुरु , मामा, भाई , पुत्र - पौत्र , मित्र , श्सुर और स्वजनों को शस्त्रों से सुसज्जित खड़े देख और उसने इन दोनों सेनाओं में अपने ही सब बांधवों को देखकर परम दुःख से यह वचन कहे । हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा से आये हुए इन अपने बन्धुओं को देख मेरे अंग ढीले होते जाते हैं और मुख सूखा जा रहा है । मेरा शरीर बेकल होता है गांडीव हाथ से गिरा जाता है , हे केशव मुझमें यहाँ खड़े रहने का सामर्थ्य नहीं है और सब लक्षण मैं उल्टे देख रहा हूँ और संग्राम में अपने स्वजनों का वध करके कोई लाभ नहीं होगा ।
हे कृष्ण ! मैं जीत , राज्य और सुख भी नहीं चाहता हूँ । हे प्रभु हमको राज्य , भोग तथा जीवन से क्या काम है क्योंकि जिनके लिये राज्य भोग और सुख की इच्छा की जाती है , वे सब इस युद्ध में प्राण और धन की इच्छा छोड़ मरने को तैयार हैं । आचार्य , पिता , पुत्र , पितामह , मातामह श्वसुर , पौत्र , साले और संबन्धी ये सब मुझे मारें तो भी हे मधुसूदन मैं इन्हें मारने की इच्छा नहीं करूंगा । हे जनार्दन ! त्रिलोकी के राज्य के लिए भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता फिर इस पृथ्वी के राज्य के लिए तो कहना ही क्या । हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमारा क्या भला होगा इसलिए हमें अपने भाई , धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना अनुचित है । हे माधव ! स्वजनों को मारकर क्या हम सुखी हो सकते हैं ? ये सब
लोभ के वशीभूत हैं और कुल के नाश करने तथा मित्र द्रोह करने में , पाप द्रोह करने
में पाप को नहीं देखते | कुल नाश के दोष को जानते हुए भी हमको इस पाप कर्म से
क्यों नहीं दूर रहना चाहिए | कुल का नाश होने से कुल के प्राचीन धर्म नष्ट हो जाते
हैं फिर धर्म नाश होने से कुल में पाप बढ़ता है | हे कृष्ण ! पाप से कुल की
स्त्रियाँ व्यभिचारिणी होती हैं जिससे
वर्णशंकर सन्तान उत्पन्न होती है वर्णशंकर जिन पुरुषों ने कुल को नष्ट किया
है उनको तथा उस कुल को नर्क में पहुँचाते हैं क्योंकि श्राद्ध तर्पण आदि बन्द हो
जाते हैं वर्णशंकर बनाने वाले दोषों से कुल ध्वंसकों के जाति धर्म और कुल धर्म
निरन्तर नाश होते हैं
हे जनार्दन ! मैंने बराबर सुना है कि कुल
धर्म नष्ट होने से निश्चय नरकवास करना होता है | हाय ! हम बड़ा पातक करने को तैयार
हैं जो राज्य सुख के लोभ से स्वजनों को मारने की कोशिश कर रहे हैं | शस्त्रों को
धारण किए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र यदि मुझे शस्त्ररहित और उपयहीन को रण भूमि में
वध कर डालें तो मेरा बहुत कल्याण हो | संजय ने कहा हे राजन ! यह कहकर दुखित होकर
अर्जुन ने धनुष बाण फेंक दिया और रथ के पिछले भाग में जा बैठा |
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